Monday, June 23, 2014

यज्ञ और यज्ञोपवीत


 | ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न


यज्ञ और यज्ञोपवीत



विमल - तुम्हारा कल का प्रश्न था, यज्ञ क्यों करना चाहिए ? यज्ञ करने से अनेक लाभ है । यह घी-सामग्री का व्यर्थ फूंकना नहीं है । यज्ञ में घृत और सामग्री जो जलाई जाती है वह वायुमण्डल को शुद्ध बना देती है, वायु के शुद्ध होने से रोगो की सम्भावना नहीं रहती ।



कमल - यज्ञ से वायु कैसे शुद्ध हो है जाती है?



विमल - यज्ञ की सामग्री मे चार प्रकार के पदार्थों का समावेश होता है- रोगनाशक, सुगन्धित, मीठे और पुष्टिकारक । इन पदार्थों से जब यज्ञ किया जाता हैं तो वायुमण्डल में स्वास्थ्य को हानि पहुंचाने वाले जो कीटाणु होते हैं वे मर जाते हैं । इसी का नाम वायु शुद्ध हो जाना है । इसी यज्ञ द्वारा वर्षा शुद्ध होने की सम्भावना रहती है, जिससे अन्न और औषधियाँ गुणकारी होती हैं, फलत: समस्त प्राणियों का कल्याण होता है ।



कमल - मेरे विचार में तो रोग नाशक और पौष्टिक पदार्थ यदि खाए तो अधिक लाभ हो सकता है । जलाकर पदार्थों को नष्ट क्यों किया जाये? और भला यज्ञ द्वारा वर्षा होने की सम्भावना कैसे हो सकती है?


विमल - मेरा मतलब यह नहीं कि पौष्टिक और रोगनाशक पदार्थ खाये न जायेँ । उन्हें यथोचित खाना भी चाहिए और उनसे यथाशक्ति यज्ञ भी करना चाहिए । जहाँ पदार्थों द्वारा शरीर को पुष्ट करना आवश्यक है वहाँ पदार्थो द्वारा वायु शुद्ध करना और भी आवश्यक है । यदि कोई मनुष्य वायु को शुद्ध नहीं करता तो वह पापी हैं । क्योंकि जब वह वायु को गन्दा करता है तो वायु को शुद्ध करना भी उसका धर्म है । देखो! शरीर से जो कुछ निकलता है गन्दा ही तो होता है- आँख से कीचड़ निकलता है वह गन्दा, कान से जो मैल निकलता है वह गन्दा, मुँह और नाक से जो मैल निकलता है वह गन्दा, पसीना निकलता है वह गन्दा, मल-मूत्र निकलता है वह गन्दा इसी तरह से जो वायु निकलती है, वह गन्दी है । मनुष्य बाहर से अन्न, जल, वायु, फल आदि जो भी ग्रहण करता है वे पवित्र पदार्थ है । पर वे पदार्थ शरीर के भीतर से गंदे होकर निकलते हैं और बाहर की वायु को गन्दा बनाते है । यह मानी हुई बात है कि वायु ही प्राणियों का जीवन है । भोजन और जल के बिना दो चार दिन और कभी कभी इससे भी अधिक समय तक लोग जिन्दा नहीं रह सकते हैं । लेकिन वायु के बिना एक घंटा भी जिन्दा नहीं रह सकते जब वायु प्राणियों की जिन्दगी का आधार है, तो उसका शुद्ध रहना कितना आवश्यक है ? जब वायु अशुद्ध हो जाती है तो कितनी बीमारियों फैल जाती हैं । ये प्लेग और हैजा आदि रोगों के फैलने का कारण गन्दी वायु ही तो है । मरीज के शरीरों के कीटाणु और चूहों के पेट के कीटाणु भी तो वायु में मिल जाते हैं और भयंकर बीमारियों को जन्म देते हैं । इसलिए वायु को शुद्ध बनाने के लिए यज्ञ या हवन से बढ़कर दूसरा उपाय क्या हो सकता है? तुम्हारा जो यह कहना है कि जलाकर पदार्थों को नष्ट क्यों किया जाता है वास्तव में यह ना समझी की बात है । संसार में किसी चीज का नाश नहीं होता केवल रुप बदल जाता है । देखो! पानी जल जाने पर मूर्ख मनुष्य तो समझता है, यह नष्ट हो गया, परन्तु बुद्धिमान जानता है, यह भाप बनकर वायु में मिल गया, नष्ट नहीं हुआ । इसी प्रकार यज्ञ की सामग्री जलकर नष्ट नहीं होती । वह सूक्ष्म होकर वायु का संशोधन करने तथा वायु में मिली हुई भाप को शुद्ध बादल के रुप में जमाने का काम करती है । भाप को जमाने के लिए घी तो 'जामन' का काम करता है । जैसे सैकड़ो मन दूध को जरा-सा दही जमा देता है वैसे ही घृत जिसे सूर्य की तीक्ष्ण से तीक्ष्ण किरणे भी नही सुखा सकतीं, उसको जमाकर वर्षा का कारण बनाता है । अगर लोग विधि और नियम पूर्वक हवन करें, तो निश्चय पूर्वक ठीक समय पर वर्षा हो सकती है । प्राचीन समय में अत्यन्त विधि पूर्वक यज्ञ होते थे, इसलिए खूब वर्षा होती थी, फलत: अकाल नहीं पड़ा करते थे और न आजकल जैसे रोग फैलते थे ।



कमल - क्या घर में सुगन्धित और रोगनाशक पदार्थ रखना नहीं चाहिए? क्या उनसे वायु शुद्ध नहीं हो सकती? जलाने से ही शुद्ध होती है? जलाने में क्या विशेषता है?



विमल - घर में सुगन्धित और रोगनाशक पदार्थ अवश्य रखना चाहिए परन्तु उनसे यज्ञ भी करना चाहिए । यज्ञ करने से पदार्थों की शक्ति करोड़ो गुणा अधिक हो जाती है । इसका प्रमाण यह है, कि  जैसे एक मनुष्य चार मिर्च खा जाता है, उनकी तेजी और कड़वाहट को आसानी से सहन कर लेता है । परन्तु यदि वहीँ मनुष्य जरा सा टुकडा मिर्च का अग्नि में डाल देता है तो उसकी तेजी को वह सहन नहीं कर पाता । खाँसते-२ परेशान हो जाता है बल्कि गली मुहल्ले वालों की भी नाक में दम आ जाता है वे कहने लगते है कि न जाने आज किस कम्बख्त ने मिर्च जलाई है । परन्तु यदि मनुष्य घृत और उत्तम सामग्रियों से हवन करता है तो लोग कहते है, किसी भाई के यहाँ हवन हो रहा है, जिसकी सुगन्धि आ रही है । अब तुम समझ गये होगे कि जिस वस्तु को अग्नि जलाती है उसकी शक्ति कितनी बढ़ जाती है । यज्ञ से बढ़कर उपकार का दूसरा कर्म नहीं हो सकता यज्ञ गुप्त दान है । यज्ञ से जहाँ अपने घरो की वायु शुद्ध होती है, वहीं दूसरो के घरो की भी शुद्धि हो जाती है । वैसे  चाहे कोई किसी का दान न ले । परन्तु यज्ञ द्वारा सब एक दूसरे का दान ग्रहण कर लेते है । क्योंकि यज्ञ-सामग्री सूक्ष्म रुप में वायु द्वारा सबके घरो में पहुचती है और रोगाणुओ को नष्ट करती है ।



कमल - संसार की दुर्गन्ध और रोग के कीटाणुओं को तो सूर्य की रश्मियाँ ही नष्ट कर देती है फिर यज्ञ करने की क्या आवश्यकता है? जो काम मनुष्य के किये बिना हो रहा है, उसमें व्यर्थ की मगजपच्ची क्यों की जाए ?



विमल - मै पूछता हूँ कि जब सूर्य और चन्द्र मनुष्य के बिना निकाले ही निकल रहे हैं, तो फिर मनुष्य प्रकाश के लिए बिजली, गैस, लालटेन और दीपक से क्यों काम है रहा है? सृष्टि में फल, वनस्पति, मेवे आदि लगातार उत्पन्न हो रहे है फिर मनुष्य खेती करके अनाज क्यों उत्पन्न कर रहा है? शरीर में स्वयं ही रोगो के दूर होने का भगवान् ने प्रबन्ध कर रखा है । हृदय बराबर रक्त शुद्ध कर रहा है, पेट की अन्तडियाँ बराबर भोजन और जल का विभाजन कर रही है तथा क्रमानुसार प्रत्येक इन्द्रिय को उत्तम हिस्सा देकर गन्दा हिस्सा बराबर शरीर से बाहर निकाल रही है । रोगों को दूर होने का समुचित प्रबन्ध है, फिर क्यों मनुष्य औषधियों का प्रयोग कर रहा है, और क्यों परहेज से रहने का यत्न कर रहा है? वास्तव में सृष्टि के यह नियम ही तो मनुष्य को अपने अनुकूल चलाने की प्रेरणा करते है, ताकि मनुष्यों का कल्याण हो! सृष्टि-नियम यह बतलाते है कि जैसे सूर्य अपनी रश्मियों से गन्दगी को दूर कर रहा है, वैसे ही गन्दगी को तुम दूर करो । जैसे सूर्य संसार की वायु शुद्ध कर रहा है, वैसे ही वायु को तुम शुद्ध करो । यह यज्ञ आदि परोपकार के काम करने में सृष्टि नियम प्रबल प्रमाण का प्रत्यक्ष परिचय दे रहे हैं ।


कमल - अच्छा, यज्ञ करते हुए मन्त्र क्यों पढ़ते हैं?



विमल - मंत्रो में यज्ञों का लाभ वर्णन किया है, उन्हें श्रोतागणों को सुनाया जाता है । दूसरे मन्त्र कण्डस्थ रहते हैं फलत: वेद की रक्षा होती है । तीसरे जिस चीज को बार-बार पढ़ा जाता है उसमें श्रद्धा भी हो जाती है, श्रद्धा हो जाने पर कार्य में प्रवृत्ति बनी रहती है । कार्य में प्रवृत्ति बनी रहने से आत्मा पर 'कर्मकाण्ड' के उत्तम संस्कार पड़ते रहने के कारण मनुष्य अपने जीवन के उददेश्य तक पहुंच जाता है ।



कमल - अच्छा मित्र, यह बात तो समाप्त हुई । अब यह बताओ, यज्ञोपवीत पहनने से क्या लाभ है? ये धागे लोग क्यों गले में डाले रहते हैं? कोई तीन धागे डाले रहता है, कोई छ: डाले रहता है, इसमें क्या रहस्य है?



विमल - यज्ञोपवीत को  'प्रतिज्ञासूत्र' या 'व्रतबन्ध' भी कहा जाता है । इसको पहिन कर मनुष्य कर्तव्य पालन करने का व्रत लेता है । वास्तव में यज्ञोपवीत के तीन ही धागे होते है । यह धागे एक 'ब्रह्मगाँठ' में बंधे रहते है । यह तीनों धागे इस बात की सूचना देते है कि प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण है अर्थात् देवऋण यह है कि जिस ईश्वर ने मनुष्यों को जन्म दिया है उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना, नित्य नियम पूर्वक करे । जो व्यक्ति संध्या और हवन नहीं करता वह 'देवऋण' से मुक्त नहीँ हो सकता । वैसे संध्या हवन करने में ईश्वर का कुछ भला नहीं है, अपना ही भला है । क्योंकि संध्या से आत्मिक उन्नति होती है और हवन से शारीरिक उन्नति होती है । परन्तु जो मनुष्य उपकार करने वाले का उपकार नहीं मानता, वह 'कृतघ्न' कहलाता है । कृतघ्न मनुष्य किसी का भी विश्वासपात्र नहीं बन सकता । अतएव एक धागा संध्या और हवन अर्थात् "देवऋण" से उऋण होने की प्रतिज्ञा कराता है। दूसरा धागा 'पितृऋण' अर्थात माता-पिता की सेवा करने की प्रतिज्ञा कराता है। तीसरा धागा 'ऋषिऋण' से मुक्ति होने की प्रतिज्ञा कराता है । अर्थात् जिस गुरु या आचार्य ने विद्याध्ययन एवं अपनी शिक्षाओं और सदुपदेशो से सन्मार्ग दिखाया है, उसकी सेवा सदैव करनी चाहिए, यह सिखाता है । और भी अनेक सूक्ष्म बाते हैं जिनकी प्रतिज्ञा ये 'त्रिसूत्र' या जनेऊ कराता है । जैसे ज्ञान, कर्म और उपासना ये तीन साधन ईश्वर प्राप्ति के है । यज्ञोपवीत पहन कर मनुष्य कहता है कि मै ज्ञान, कर्म, उपासना से ईश्वर की प्राप्ति करुँगा, मैं जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं को पूर्ण करके 'तुरीय' अवस्था में प्रभु से मेल करुँगा  प्रकृति के सत्, रज, तम तीनों गुणों से यथावत् लाभ उठाता हुआ जीवन के उददेश्य परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ूंगा । मैं बडे छोटे और बराबर वालों से ठीक-२ बर्ताव करुँगा। अर्थात बडों का आदर, बराबर वालों से प्रेम, और छोटों पर दया करुँगा । ऐसी अनेक महत्वपूर्ण बातों का प्रतिज्ञाबद्ध आदर्श यज्ञोपवीत सामने रखता है ।


कमल - तुम्हारा यह कहना कि यज्ञोपवीत के तीन ही धागे होते हैं झूठा है । मैंने सैकडों को छ: धागों का पहनते हुए देखा है, दूसरे जितनी भी प्रतिज्ञा की बाते तुमने कही है, उन्हें वैसे भी याद रखा  जा सकता है। इन धागों के बन्धन में मनुष्य को क्यों बांधा जाये?



विमल - यह मै मानता हूँ तुमने छ: धागों का यज्ञोपवीत पहने हुए लोगों को अवश्य देखा होगा । परन्तु वास्तव में तार तीन ही होते हैं। प्राचीन काल में यज्ञोपवीत स्त्रियाँ भी पहनती थी और वेदादि सत्शास्त्रो का अध्ययन करती थी, परन्तु कालचक्र के प्रवाह से स्वार्थी पुरुष समाज ने स्त्रियों के यज्ञोपवीत पहनने और वेदाध्ययन करने का अधिकार छीन लिया । जो स्त्रियों का यज्ञोपवीत था वह भी अपने ही गले में डालने लगे । परन्तु अब ऋषि दयानन्द की कृपा से स्त्रियों को पुन: यज्ञोपवीत और वेदादि शास्त्र के अध्ययन करने का अधिकार प्राप्त हो गया है । फलत: लाखों आर्य भाई और बहिनें 'त्रिसूत्र' पहनने लगे है । कोई भी आर्य पुरुष छ: तारो का जनेऊ नहीं पहिनता । हाँ, जो स्त्रियों की उन्नति तथा शिक्षा के विरोधी है, वे छ: तार का जनेऊ अवश्य पहनते है । रही यह बात कि जितनी प्रतिज्ञा की बातें हैं उन्हें वैसे ही याद कर लिया जाये, यह खाँमखाँ गले में तारो का बन्धन क्यो डाला जाये? भाई यह तो वह बात हुई कि पुलिस के सिपाही को उसके कर्त्तव्य सम्बन्धी सभी बात सिखा दी जायें, परन्तु उसे पहिनने को वर्दी और चपरास न दी जाये। वर्दी और चपरास के बन्धन से सिपाही का फायदा ही क्या है? मै पूछता हूँ कि सिपाही के चपरास और वर्दी न पहिनने पर पब्लिक के आदमी में और उसमें क्या अन्तर रहेगा? और यह जाना भी कैसे जायेगा, कि यह सिपाही है? लोग उसका रोब भी किस तरह मानेंगे? पता चला, जिस तरह सिपाही को कर्तव्य सम्बन्धी बातें याद  रखना जरूरी है, उसी तरह वर्दी और चपरास भी पहिनना जरुरी है । यहीं दृष्टान्त जनेऊ पर भी लागू होता है। जहाँ द्विजो को कर्तव्य सम्बन्धी प्रतिज्ञायें याद रखना जरुरी है, वहाँ द्विजत्व का चिंह यज्ञोपवीत भी धारण करना जरुरी है ।



कमल - अच्छा, लोग इसे कान पर क्यों चढ़ा लेते है ।



विमल - मल मूत्र त्याग करते समय कान पर चढ़ा लेते है ।



कमल - यह क्यो? 


विमल - इससे एक लाभ रहता है, वह यह कि जब तक कान पर जनेऊ चढ़ा रहता हैं तब तक यह बात याद बनी रहती है कि मुझे हाथ मुँह आदि शुद्ध करना है । जहाँ हाथ मुँह आदि शुद्ध किया, फिर कान से उतार देते है इस दृष्टि से जनेऊ पवित्रता की याद दिलाने का भी एक साधन बन जाता है ।



कमल - क्या कान पर जनेऊ चढ़ाना बहुत आवश्यक है?



विमल - बहुत आवश्यक नहीं, परन्तु यदि कान पर चढ़ा लिया जाये तो कोई हर्ज भी नहीं बल्कि इससे तो शुद्धता की याद बनी रहती है, जैसा कि मैं कह चुका हूँ। हाँ, एक बात है यदि जनेऊ बहुत नीचा हो, तो मूत्र मल आदि में भ्रष्ट होने की सम्भावना रहती है । ऐसी अवस्था में तो कान पर चढ़ाना ही आवश्यक है ।



कमल - अच्छा, लोग चोटी क्यों रखते हैं और संध्या करते समय लोग उसमें गाँठ क्यों देते है?



विमल - 'चोटी' का शब्द ही यह बतला रहा है कि मनुष्य के शरीर में यह स्थान और यह चीज सबसे ऊँची है । जहाँ चोटी रक्खी जाती है उस स्थान को 'ब्रह्म-रन्ध्र' कहते हैं । विद्वानों ने इस स्थान को ब्रह्म का गुप्त कोष कहा है । योग की परिभाषा से इसे 'सत्य' कहते हैं । इसलिए वैदिक संध्या में 'सत्यं पुनातु पुन: शिरसि' आया है । संध्या करते हुए गायत्री मन्त्र का उच्चारण करके सर्वप्रथम चोटी में गाँठ देते है, इसका अर्थ ही यह है कि उपासक अपनी आत्मा को परमात्मा के साथ गाँठ देकर ऐसे जोड़ रहा है जैसे कन्या विवाह के समय अपने पति के वरने के अन्तिम चिन्ह के रुप में उस प्रतिज्ञा की अन्तिम पूर्ति को कार्य रुप में करती हुई अपने पल्ले को पति के पल्ले के साथ एक गाँठ द्वारा जोड़ लेती है । यही गाँठ विवाह की प्रतिज्ञाओं का अन्तिम बन्धन है। वास्तव में चोटी धर्मं का चिन्ह हैं।



कमल - मुझे तो इसकी संक्षेप में उपयोगिता बता दो कि हिन्दू चोटी इसलिए रखते हैं, तथा और लोग क्यों नहीं रखते ?



विमल - मै कह चुका हूँ कि यह आर्य लोगों के धर्म का चिन्ह है । चोटी का अर्थ ही शिखा अर्थात् ऊँचा है, वैदिक धर्मं ईश्वरीय होने के कारण चोटी का धर्म है। इसलिए चोटी को धर्म चिन्ह के रुप में रखते हैं । जिनका वेदों का धर्म नहीं है, वह चोटी कैसे रखें? चोटी के धर्म वाले ही तो चोटी का निशान रखेंगे ।



कमल - अच्छा मित्र, अब तो जाता हूँ कल एक बहुत आवश्यक विषय पर वार्तालाप करूँगा | 


| ओ३म् |

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