Monday, June 23, 2014

ईश्वर भक्ति क्यों करे?

| ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न

ईश्वर भक्ति क्यों करे?


कमल - लो, मित्र, मै आ गया । कल के प्रश्न का उत्तर दो ।


विमल - तुम्हारा कल का प्रश्न था - ईश्वर की भक्ति क्यों करनी चाहिए, उनकी स्तुति, प्रार्थना से क्या लाभ है? अच्छा सुनो! संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने भण्डार या केंद्र की ओर जाना चाहता है । यह नियम जड़ और चेतन दोनों प्रकार के पदार्थों पर लागू होता है । अग्नि की ज्वाला सदैव ऊपर की ओर जाती है, क्योंकि अग्नि का भण्डार सूर्यं ऊपर विद्यमान है । मिट्टी का ढेला चाहे जितनी जोर से ऊपर की और फेंको, वह सदैव अपने भण्डार पृथ्वी की और ही अन्त में आता है । सूर्य की किरणे समुद्र के जल को भाप बनाकर हवा में सम्मिलित कर देती हैं परन्तु वहीँ भाप बादल में परिवर्तित होकर जल बनकर बरसती है और अनेकों नदी-नालों के द्वारा पुन: समुद्र में पहुंच जाती है । यही अन्य पदार्थों का हाल है । संसार में प्रत्येक वस्तु का भण्डार मौजूद है । जल का भण्डार समुद्र, अग्नि का भण्डार सूर्य, वायु का भण्डार वायु-चक्र, मिट्टी का भण्डार पृथ्वी, घटाकाश महाकाश का भण्डार वृह्दाकाश । इसी भाँति ज्ञान का भी भण्डार जगत् में मौजूद है और वह परमात्मा है । मनुष्य को जो भी ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह परमात्मा से ही हुआ है । किसी मनुष्य में बिना पढाये ज्ञान-प्राप्ति की योग्यता नहीं है । यदि मनुष्य में बिना पढाये ज्ञान प्राप्ति की योग्यता होती तो स्कूल, कालेज, पाठशालाए तथा विद्यालयों की आवश्यकता ही न थी और न पढाने वालों की आवश्यकता थी । माता, पिता अपने बच्चों को प्रारम्भ में बोलना सिखाते है और पदार्थों का ज्ञान कराते है । यह पैसा है, यह रुपया है, यह रोटी है, यह पानी है, यह चाचा है, यह भाई है ऐसी-२ हजारों बाते याद कराते और बताते हैं फिर वे ही बच्चे पाठशाला ने गुरु द्वारा संसार के विविध विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं । लेकिन उन माताओं और पिताओं तथा गुरुओं का ज्ञान भी अपना नहीं होता है । उन्होंने भी अपने माता - पिता और गुरुओं से वही बाते सीखी हैं । इसी तरह हर एक व्यक्ति एक दूसरे से ज्ञान प्राप्त करता हुआ चला आया है । प्रश्न उत्पन्न होता है, जब सबने एक दूसरे से ज्ञान प्राप्त किया है, तो सृष्टि के आदि के मनुष्यों ने किन माता-पिता और गुरुओं से ज्ञान सीखा क्योकि उनसे पहले तो कोई था ही नहीं । उत्तर यहीं है, उस समय उन्होंने परमात्मा से ज्ञान सीखा । यदि कहा जाय परमात्मा ने ज्ञान कैसे सिखाया कैसे परमात्मा ने मनुष्यों को पढ़ाया, जब कि उसके शरीर ही नहीं? इसका उत्तर यह है ज्ञान देने और पढ़ाने में अन्तर होता है । पढ़ाया जाता है शब्दों द्वारा और ज्ञान दिया जाता है आत्मा में । परमात्मा सर्वत्र व्यापक होने के कारण उन मनुष्यों में भी व्यापक होता है, जिनको वह सृष्टि के आदि में बनाता है । अतएव अपनी ज्ञानमयी शक्ति से चार ऋषियों की आत्मा में ज्ञान का प्रकाश करता है, जिनके अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम है । वे ऋषि शब्दों द्वारा संसार के अन्य मनुष्यों को फिर पढाते है और तब पढ़ने और पढाने का क्रम चल पड़ता है। अगर परमात्मा सृष्टि के आदि में ऋषियों को ज्ञान न देते, तो पढ़ने-पढ़ाने की परम्परा चल ही नहीं सकती। इससे सिद्ध है कि मनुष्यों ने जो भी ज्ञान सीखा है वह परम्परा से सीखा है, और ज्ञान का विकास किया है वह परमात्मा की दी हुई बुद्धि से परमात्मा की बनाई हुई सृष्टि को देखकर किया है । मनुष्य ज्ञान का विकास तो कर सकता है परन्तु ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक उसे ज्ञान प्राप्त न कराया जाए । आदि सृष्टि में ऋषियों के हृदय में परमात्मा बीज रुप ज्ञान देता है । बाद में वृक्ष रुप विकास ऋषियों और बुद्धिमान् मनुष्यों द्वारा होता है । यहीं सदा से नियम रहा है, और रहेगा । हाँ, तो मैं यह कह रहा था कि जब संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने भण्डार की ओंर जाना चाहता है और जाता है ही तो चेतन जीवात्मा जो कि अल्पज्ञ अर्थात् थोड़े ज्ञान वाला है वह ज्ञान के भण्डार चेतन परमात्मा की ओंर जाना क्यों न चाहेगा? जीवात्मा भी परमात्मा की ओंर जाना चाहता है, क्योकि उसका विकास अर्थात् उन्नति बिना परमात्मा के हो ही नहीं सकती । जड़ का जड़ से, और चेतन का चेतन से विकास होता है । संसार के किसी भी जड़ पदार्थ से चेतन जीवात्मा की उन्नति नहीं हो सकती। हाँ, जड़ पदार्थों से जड़ शरीर की उन्नति अवश्य हो सकती है, यदि वह उनका ज्ञानपूर्वक उपयोग बारे । जीवात्मा अज्ञानतावश संसार के पदार्थों में उन्नति की खोज करता है परन्तु उनसे उन्नति होती नहीं इसलिए वह अशान्त रहता है । संसार में जितना भी दुख है वह अज्ञानता के कारण है | पदार्थों की वास्तविकता का अगर जीवात्मा को पता हो तो उसे दुःख हो ही नहीं सकता । दुःख और बन्धनों का आवरण जीवात्मा पर भी तभी तक है जब तक वह अविद्या को विद्या, असत्य को सत्य, जड़ को चेतन समझ रहा है । ज्ञान का भण्डार परमात्मा ही सुखों का भण्डार है । उसके अतिरिक्त सुख संसार के किसी भी पदार्थ में नहीं है । अगर संसार के पदार्थों में सुख होता तो सारा संसार सुखी नजर आता, परन्तु अवस्था यह है कि संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है । जब सुख चाहता है तो पता चला सुख उसके पास नहीं है । यदि होता तो सुख चाहता ही क्यों? बस ईश्वर की भक्ति और स्तुति प्रार्थना करने का यहीं मतलब है कि मनुष्य को परमात्मा से प्रेम हो जाए, जो उसके जीवन का उद्देश्य है। ज्यों-२ मनुष्य परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना और उपासना शुद्ध मन से करेगा त्यों-२ वह ईश्वर के समीप होता चला जायेगा और अन्त में संसार के समस्त दुखो और बन्धनों से छूटकर परमानन्द को प्राप्त हो जायगा । 



कमल - मित्र! तुम्हारा यह कहना मिथ्या है कि संसार के पदार्थों में सुख नहीं है । यदि संसार के पदार्थों में सुख न होता, तो संसार के प्राणी संसार के पदार्थों को क्यों चाहते? यदि धन में सुख न  होता तो लोग धन को क्यों एकत्र करते? भोजन में सुख न होता तो लोग भोजन क्यों करतें? वस्त्रो में सुख़ न होता, तो लोग वस्त्र क्यों पहनते ? यदि मकान महल आदि में सुख न होता तो लोग  उन्हें क्यों बनाते? तात्पर्य यह है कि संसार के प्रत्येक पदार्थों में सुख है तभी लोग उसे चाहते है और उन्हें छोड़ना नहीं चाहते । पदार्थों के संयोग से मनुष्य सुख मानता है और वियोग में दुख मानता है। फिर कैसे मान लें कि संसार में सुख नहीं ।

विमल - मित्र! वास्तव ने संसार के पदार्थों में सुख नहीं है, सुखाभास, अर्थात, सुख सा प्रतीत होता है । सुख तो प्रत्येक मनुष्य के अपने ही अन्दर है । जब मनुष्य संसार के किसी पदार्थ का प्रयोग करता है तो उसे सुख प्रतीत होता है तो वह समझता है कि इस पदार्थ से ही सुख मिल रहा है । पर वास्तव में सुख उस पदार्थ से नहीं मिल रहा है । उसी की चित्त की एकाग्रता से उसे सुख अनुभव हो रहा है। कुत्ता जब हड्डी को चूसता है, तो दाढ़ के छिल जाने से खून निकलने लगता है । ज्यों-२ खून निकलता है त्यों-२ वह और जोर के साथ उसे चूसता है । वह समझता है कि हड्डी से ही खून निकल रहा है । लेकिन निकल रहा है उसकी अपनी दाढ़ से । हड्डी में खून कहाँ है ! ठीक इसी प्रकार संसार के पदार्थों में सुख कहाँ है! सुख तो अपने ही अन्दर है, जो प्रत्येक प्राणी को अनुभव होता है । देखो यदि धन में सुख़ होता, तो कोई धनी दुखी न देखा जाता । परन्तु जितनी चिन्तायें, भय और दुःख धनियों को हैं, उतने निर्धन को नहीं । यदि एक धनवान आदमी बीमारी से कष्ट पा रहा है, तो वह धन से दवा खरीद सकता हैं परन्तु तन्दुरुस्ती नहीं खरीद सकता । यदि वह मूर्ख है, तो पुस्तकें खरीद सकता है, मास्टर नौकर रख सकता है, परन्तु धन से विद्या प्राप्त नहीं कर सकता । विद्या तो परिश्रम से ही प्राप्त कर सकंगा । इसी तरह धन से भोजन खरीद सकता है भूख नहीं खरीद सकता । ऐसे भी मनुष्य संसार में हैं जिनके पास लाखों करोडों रुपये की सम्पति है किन्तु आध पाव दूध चावल भी हजम नहीं कर सकते । अब बताओ धन में सुख़ कहाँ है? यदि भोजन में सुख माना जाय, तो चार रोटी खाने में जो सुख मिलता है, सोलह रोटी खाने में चौगुना सुख मिलना चाहिये, क्योंकि सुख जब रोटी का धर्म है तो रोटी की वृद्धि के साथ-२ सुख़ की मात्रा भी बढ़नी चाहिये | परन्तु होता यह है कि भूख से यदि अधिक भोजन किया जाता है तो पेट में दर्द हो जाता है, और डाक्टर या वैद्य की आवश्यकता पड़ने लगली है, भूख के अन्दर रुखा सूखा भोजन भी अमृत के समान प्रतीत होता है । भूख न होने पर अमृत में भी स्वाद नहीं आता । इसी तरह वस्त्रो को लो । यदि वस्त्रो में सुख माना जाय तो जाडे में ऊन और रुई के मोटे-२ वस्त्र जो सुख़दायक प्रतीत होते हैं, गर्मी में भी वे ही वस्त्र वैसे ही सुख़दायक प्रतीत होने चाहिए और जो वस्त्र गर्मी में सुखदायक प्रतीत होते हैं है सर्दी में भी वैसे ही प्रतीत होने चाहिए । जब सुख वस्त्रो का धर्म है तो प्रत्येक समय उनसे सुख ही मिलना चाहिए । क्या कारण है, गर्मी के वस्त्र सर्दी में और सर्दी के वस्त्र गर्मी में आराम नहीं देते! जो जिसका धर्म है वह प्रत्येक समय एक जैसा ही रहना चाहिए । जैसे अग्नि का धर्म जलाना है, उसे किसी भी समय छुओ, फ़ौरन जलायेगी । मिश्री का धर्म मीठापन है किसी भी समय खाओ मीठी प्रतीत होगी । इसी प्रकार यदि संसार के पदार्थों का धर्म सुख देना हो तो संसार के पदार्थ प्राप्त करने पर मनुष्य सुख की खोज न करते । उन्हें तो प्रत्येक समय सुख का अनुभव होना चाहिए था । भला बताओ तो सही एक मनुष्य जिसे १०५ डिग्री का बुखार चढा हुआ है उसे रेशम की डोरी से बने हुए मखमल बिछे हुए, सोने के पलंग पर लिटा देने से उसके दुःख में कोई कमी हो सकेंगी? कदापि नहीं । इसलिये मैं कहता हूँ सुख संसार के पदार्थों में नहीं, सुख़ का भण्डार केवल परमात्मा ही है ।



कमल - यदि संसार के पदार्थों में वास्तव में सुख नहीं, अपने अन्दर है तो लड्डू या जलेबी खाने पर आनन्द क्यो आता है? मिट्टी खाने है क्यो नहीं आता ! रोटी खाने में आनन्द क्यो आता हैं पत्थर खाने से क्यो नहीं आता? क्या कारण है मिश्री खाने से आनन्द आता है घास खाने से नहीं? क्या कारण है किसी सुन्दर दृश्य को देखने से आनंद आता है, श्मशान को देखने से नहीं?



विमल - लड्डू, जलेबी, मिश्री आदि जितने भी बने योग्य पदार्थ हैं उन्हें खाने पर उन्ही के गुणों का अनुभव होता है, आनन्द का नहीं । जैसे मिश्री खाई तो मिठास मालूम दी और मिर्च खाई तो कड़वापन मालूम दिया । अब न तो कड़वाहट का नाम आनन्द है, न मिठास का । जिस चीज में मनुष्य के चित्त की एकाग्रता हो गयी, उसमें उसने आनन्द समझ लिया यदि मिश्री में आनन्द होता तो ज्वर की अवस्था में आनंद देती, परन्तु ज्वर की अवस्था में मिश्री बेस्वाद प्रतीत होती है । इसी प्रकार मिर्च खाने का जिसे अभ्यास नहीं है उसे मिर्च जहर के समान लगती है । यही अवस्था संसार के अन्य पदार्थों की है । रही यह बात कि मिट्टी खाने से आनन्द नहीं आता? मिट्टी खाने से भी आनन्द आता है, अगर उसमें चित्त की एकाग्रता हो जाए । बहुत से भाइयों और बहिनों को मैंने कच्चे मिट्टी के सकोरे और चिकनी मिट्टी खाते देखा है। बहुत से जानवर कंकड़ और पत्थर खाते है । कंकड़-पत्थर को जाने दो । शराब जैसी दुर्गन्धयुक्त तीखी और कसैली तथा अफीम जैसी कड़वी वस्तु में लोग आनन्द मानते हैं । परन्तु क्या वह आनन्द उन पदार्थों में है? नहीं । आनन्द तो उन्हें मिलता है उन्हीं के चित्त की एकाग्रता से । जितनी देर चित्त में एकाग्रता रहती है उतनी देर तक आनन्द भी रहता है । प्रश्न हो सकता है किसी पदार्थ में चित्त को एकाग्रता कैसे होती है? उत्तर यह है कि किसी भी चीज का मनुष्य जब अभ्यासी हो जाता है, तो उस चीज में में उसको क्षणिक एकाग्रता होने ही लगती है क्योंकि अभ्यास करते-२ मन पर उस वस्तु के संस्कार पड़ जाते हैं और वे संस्कार बार-२ मनुष्य को उसी वस्तु के प्रयोग के लिये प्रेरित करते हैं । यही बात किसी सुन्दर दृश्य को देखने की है । मनुष्य अपना मन प्रसन्न करने के लिए नदी, समुद्र, वन-उपवन तथा पहाड़ो का भ्रमण करने जाता है । लेकिन अगर उसके पीछे कोई भयंकर मुकदमा हो, तो उसे किसी स्थान पर आनन्द नहीं आता । सारे स्थान श्मशान के समान प्रतीत होते हैं । क्योकि मुकदमे की चिंता के कारण उसके मन में एकाग्रता नहीं । एक मनुष्य आकर्षक दृश्य, संगीत गायन आदि का आनन्द लेने सिनेमा जाता है, परन्तु घर में उसका प्यारा पुत्र बीमार है । वह सिनेमा देख रहा है, फिर भी उसे आनन्द नहीं आता | क्यो? इसलिये कि पुत्र के रोग-ग्रस्त होने के कारण उसके चित्त में एकाग्रता नहीं होती। और देखो! यदि मैं तुम्हे इस समय स्वादिष्ट लड़डू खाने को दूँ, और तुम उसे खाने लगो परन्तु में एक काम करुँ तुम्हारा ध्यान किसी दूसरी और कर दूँ, तो तुम सारा लड्डू खा जाओगे, परन्तु तुम्हें उसका स्वाद मालूम नहीं देगा। प्राय: ऐसा होता भी है, मनुष्य किसी पदार्थ को खा जाता है परन्तु ध्यान दूसरी ओर होने के कारण वह उसका दोष-गुण जान ही नहीं पाता है । अतएव सिद्ध हुआ कि सुख बाहर के पदार्थों में नहीं केवल चित्त की एकाग्रता में हैं ।



कमल - तुम तो कहते थे सुख का भण्डार परमात्मा है, अब कहते हो, सुख चित्त की एकाग्रता में है, यह दो तरह की बाते क्यों?



विमल - चित्त की एकाग्रता में ही सुख स्वरुप परमात्मा का अनुभव होता है उसी से सुख मिलता है । अज्ञानी मनुष्य समझता है कि सुख बाहर के पदार्थों से मिल रहा है । ये दो तरह की बाते नहीं हैं । बात एक ही है, परन्तु जरा गहराई से सोचने की चीज है । संसार के पदार्थों में अभ्यास के कारण क्षणिक एकाग्रता होती है, इसलिए क्षणिक आनंद मिलता है यदि पूर्णरुपेण भगवान की भक्ति में  मन एकाग्र करने का अभ्यास किया जाए तो अन्त में परमात्मा की प्राप्ति हो सकती हैं जो मानव जीवन का लक्ष्य है । इसलिए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना की आवश्यकता है ताकि चित्त अधिक से अधिक एकाग्र हो, और अधिक से अधिक आनन्द मिले ।



कमल - इसका क्या प्रमाण है, कि जितना चित्त, अधिक एकाग्र होगा, उतना ही अधिक आनन्द मिलेगा?


विमल - इसका प्रभाव मैं तुम्हें जाग्रत और सुषुप्ति अवस्था से देता हूँ। देखो जागने की हालत में मनुष्य की वृत्तियाँ संसार के पदार्थों की और फैली रहती है । कभी मन किसी पदार्थ की ओर जाता है कभी किसी पदार्थ की ओंर । इस कारण इसमें स्थिर एकाग्रता उत्पन्न नहीं होगी । लेकिन सोने की हालत में उसके मन की वृत्तियों नितान्त एकाग्र हो जाती है, तब उसे बडा आनन्द आता है प्रातकाल उठकर कहता है - 'मैं बड़े सुख से सोया बड़ी नीद आई ।' उसे सोने से जो आनन्द मिला वह चित्त की एकाग्रता के कारण मिला क्योकि आत्मा का प्रकृति के पदार्थों से सम्बन्ध छूट जाने के कारण परमात्मा से सम्बन्ध हो गया । जीवात्मा का सम्बन्ध या तो परमात्मा से होता है या प्रकृति से होता है । जितना अधिक सम्बन्ध प्रकृति से होगा, उतना ही दुख बढ़ता जायेगा । जितना अधिक परमात्मा से सम्बन्ध होगा, उतना ही सुख बढ़ता चला जायेगा । एक मनुष्य जेलखाने में पड़ा हुआ है । बुखार में पीडित है, पेट में एक फोडा उठा हुआ है । लाखों रुपये का कर्जदार है, घर में आग लग गई है, स्त्री पुत्र का देहान्त हो गया । तात्पर्य यह है कि वह अनेकों अनेक दुखों और चिंताओं से ग्रसित है । ये चिन्ताएँ और दुख कब तक हैं? जब तक वह जागृत अवस्था में है परन्तु यदि वह किसी प्रकार सो जाता है, तो उसके सारे दुख और चिन्ताएँ छूट जाती है । उस समय जो आनन्द एक राजा को आता है वही उसे आता है । मनुष्य ही नहीं सुषुप्ति अवस्था में प्रत्येक प्राणी को आनंद आता है । क्योंकि उस समय मन की वृत्तियाँ फ़ैली हुई नहीं होती । एक स्थान पर एकत्रित होती हैं । चित्त की वृत्तियों की एकाग्रता का नाम ही 'योग' अर्थात परमात्मा से मेल है । सुषुप्ति अवस्था में तो जीवात्मा का बिना ज्ञान के ईश्वर से मेल होता है । परन्तु स्तुति, प्रार्थना और उपासना द्वारा जब ज्ञान पूर्वक परमात्मा से मेल होता है तो उसको आत्मिक उन्नति कहा जाता है। और यह उन्नति समाधि द्वारा पराकाष्ठा पर पहुँचकर जीवात्मा को परमात्मा में तन्मय करा देती है, जो जीवन का उद्देश्य है |


कमल- स्तुति, प्रार्थना, उपासना किसे कहते हैं?


विमल - श्रद्धापूर्वक ईश्वर के गुणों का वर्णन करना 'स्तुति',  उन्ही गुणों को अपने दोषों को सुधारने के लिये ईश्वर से सहायता मांगने का नाम 'प्रार्थना' और संसार के पदार्थों से अहंकार का भाव हटाकर मेरे समीप परमात्मा और मै परमात्मा के समीप हूँ ऐसी दृढ़ धारणा बनाने का नाम 'उपासना' है ।



कमल - मित्र, आप ईश्वर को शरीर से रहित मानते हैं । परन्तु संसार के बहुत से लोग ईश्वर को शरीरधारी मानते हैं और उसकी भक्ति करते है । मैं पूछता हूँ, यदि ईश्वर को शरीरधारी अथवा साकार माना जाये तो उसमें दोष क्या है?



विमल - इस प्रश्न का उत्तर कल दिया जायेगा | 


| ओ३म् |

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